Sunday 21 August 2011

भ्रष्ठाचार का राज?????

"आज भारत में राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार का बोलबाला हैं.".... हाल फिलहाल में यही समाचार सभी की जुबान पर है, और सभी न्यूज़ चैनल और अखबार वाले भी यही बोल रहे हैं. हर एक व्यक्ति आज इस समस्या से तंग आ चुका है और इससे निजात पाने की जुगत में लगा है, शायद अन्ना हजारे का आन्दोलन इसी रास्ते की एक आशा एक आम आदमी को नज़र आता है और वो खुद को अन्ना कहने लगा है!!! सच में यह आन्दोलन काफी सारे सवालो को खड़ा करता है और उनके जवाब ढूँढने को मुझे ही नहीं, न जाने कितने लोगो को परेशान करता है!!!!

ऐसा ही एक सवाल मुझे कौंधे जा रहा था, क्या कारण है कि आज यह समस्या भारत के हर एक हिस्से में फ़ैल चुकी है और न केवल शासन, प्रशासन बल्कि हर कोई इसकी गिरफ्त में आता नज़र आता है और हर कोई इससे परेशान भी है?????? इसमें लिप्त होते हुए भी हर कोई इससे परेशान है, क्यूँ??? आखिर इस भ्रष्ठाचार की जड़े है कहाँ? इसकी शुरुआत कहाँ से होती है और इसका पालन-पोषण कैसे होता है?? यें प्रश्न मेरे लिए कुछ उस तरह के लगे जैसे, "अंडा पहले आया या मुर्गी???"

बात शुरू करते है वैदिक काल से, जहाँ बारिश चाहिए तो देवताओं को हवि (बलि) दी जाती थी, हवन किये जाते थे, उनको खुश किया जाता था, उससे थोडा आगे बढे तो समाज में आज भी वही परम्परा चली आ रही है. आज हम अपने बच्चो को बचपन से यही तो सिखा रहें है, परीक्षा में पास होने के लिए आसान रास्ता दिखाते है उनको....कोचिंग क्लास का चलन कहीं न कहीं इसी आसन रास्ते की और बढ़ता कदम ही है....

आज हर एक चीज़ आसानी से पाने की होड़ लगी है मानो!! हर कोई लगा है जल्दी के पीछे.....आखिर यह जल्दी कैसे होगी? कहाँ से आएगा यह शोर्ट कट?? आखिर किन लोगो को पीछे छोड़ा जायेगा?? किनके अधिकारों का अतिक्रमण करके आगे निकलेगा यह समाज? आखिर किसको दबाया जायेगा???

इन सवालो का जवाब भ्रष्टाचार के राज को खोलता हैं. आज जिस रावण की बात पूरा देश कर रहा है और जिसके लिए जन लोकपाल की बात अन्ना कर रहे है, क्या आखिर उस समस्या का समाधान केवल एक कानून बनाने मात्र से हो जायेगा??? यह एक बड़ा प्रश्न मुझे कौंधे जा रहा.......कानून तो देश में बड़े बड़े हैं, पर क्या उनका इस्तेमाल सही तरीको से किया जाता है?? क्या कानून बनाने और लागू कराने के लिए, लोगो की सोच को बदलना जरुरी नहीं है? क्या समाज में छुपी हुई उन दकियानूसी बातों और परम्पराओं को पीछे छोड़ना इसका एक दूसरा इलाज़ नहीं है? क्या आज समाज की दोगली मानसिकता को दूर करना इसका उपाय नहीं है??

अब हमें इन सभी सवालो का जवाब ढूँढना होगा, वरना अन्ना का यह महाआन्दोलन भी तमाम पुराने आंदोलनों की सूची में शामिल होकर रह जाएगा। पहल तो किसी न किसी को करनी होगी... मुझे, आपको... या हम !!!




Wednesday 3 August 2011

अदभुत भारत


"भारत एक बेहद खूबसूरत और विविधताओं वाला देश है", ऐसा मैंने बचपन से किताबो में पढ़ा, लोगो से सुना और फिल्मो में देखा था. कभी भी मुझे कही घूमने जाने का मौका मिलता, मैं उसे गंवाना उचित नहीं समझता......इतिहासकारों का लिखा भारत यात्रा का वृत्तांत पढ़कर, लोगों की टीका टिप्पणी सुनकर मेरा मन हमेशा हिलोरें मारता। यही नहीं, डिसकवरी पर देखे सभी प्रोग्राम मुझे रोमांचित करते थे कि मैं भी भारत के उन हिस्सों का दौरा करूं, उसका एक सुखद एहसास लूं.....प्रकृति की गोद में जाऊं, गाँव में रहूँ,  देश के के लोगो से मिलूँ, और भारत को करीब से देखूं......!!!! मैं भी भारत घूमना चाहता था!!! 
2010 में मुझे जाग्रति यात्रा में अपनी सेवाएँ देने का अवसर मिला..और काम मिला जागृति की जागृति करने का और उसका कार्यक्षेत्र था सम्पूर्ण भारतवर्ष!!! मानो जैसे एक प्यासे को झर- झर करके बहता हुआ  एक झरना मिल गया हो और प्यासा अब अपना सब कुछ उस पर न्योछावर कर देना चाहता हो!!!! और जागृति का मकसद "उद्यम जनित विकास" (Enterprise Led Development) को दिल में रखकर मैंने अपनी भारत यात्रा का शुभारम्भ जनवरी 2011 में बनारस की यात्रा से किया. 
जून 2011 तक मैंने भारत के उत्तर पूर्व से लेकर सुदूर दक्षिण और गुजरात से उत्तर भारत तक 21 राज्यो की यात्रा की और भारत को एक अलग नज़रिए से देखा. इस लगभग 40000 किलोमीटर की भारत यात्रा में विभिन्न युवाओं से मिलने और बात करने का मौका मिला, वहां की स्थानीय अवसर और चुनौतियों से रूबरू होने का मौका मिला, और साथ ही साथ वहां की संस्कृति और उसके मूल पहलू को समझने का मौका मिला. इस यात्रा में सबसे बड़ी बात यह थी कि मैंने यह सोच लिया था कि मैं किसी पहले से बनी बनायी विचारधारा के प्रभाव में आकर, यह यात्रा नहीं करूंगा!!!! 
जब विद्वतजनों से चर्चा होती तो सभी अपने तर्क देते और वहां की सभी बातों से अवगत कराने की कोशिश करते.....पर बात तो यहाँ पहले से कुछ सोचे बिना जाने की थी????? खैर.....जो सोच लिया उस पर अमल तो करना ही था....और मैं अपनी निगाह से अपना देश घूमने लगा. जैसे जैसे आगे बढ़ता, वैसे वैसे अपने वतन से मोहब्बत बढ़ती सी जा रही थी. हर एक उस शब्द का मतलब समझ आता जा रहा था जो बचपन से पढ़ा, सुना या देखा था....
इतनी लम्बी यात्रा करके जिसमें पहाड़, पर्वत, नदी, झरने, समुद्र, रेगिस्तान, पठार, जंगल सभी शामिल थे, जिसमें नाना प्रकार की सांस्कृतिक विविधताएं थीं, चाहे वो धर्म की हो, भाषा की हो, खान-पान की हो, या फिर रहन-सहन की.....पर मुझे सभी एक समान लगे!!! मुझे लगा कि अनेकता में एकता का आत्मिक सौंदर्य भारत की हर गली में है। हम सबसे अलग हैं, तभी तो वसुधैव कुटुंबकम का भाव लेकर आगे बढ़ रहे हैं। 
 वैसे आपको लग रहा होगा कि गजब पागल है। इतनी विविधताएं  होते हुए भी सबको एक जैसा बोल रहा है??? जी हाँ, मुझे भी अपने पहली बार ऐसा ही लगा था. लेकिन बाद में समझ आया कि ऐसा क्या है जो एक समान है?? ऐसा क्या है जो भारत को भारत बनाये हुए है?? ऐसा क्या है जो एकता को अक्षुण्य रखे हुए है?? 
इन सभी सवालों के जवाब तो तलाशने ही होंगे... मेरी मुहिम भी यही है और कोशिश भी यही। 


Tuesday 24 May 2011

किस्सा भागलपुर का

आज 18 मई की शाम थी. मैं और अभिनव भागलपुर में जाग्रति यात्रा के जागरूकता अभियान को पूरा करके दरभंगा (बिहार) की ओर जाने के तैयारी में थे. जैसे ही होटल से निकलने को थे अचानक आंधी तूफ़ान ने दरवाज़े पर दस्तक दे दी. रेसपनिस्ट को बोला बिल जल्दी बना दो तो बोलता है, "अरे सर! चिंता मत कीजिये, बारिश नहीं आएगी...हम कह रहे है ना .....". हमारी ट्रेन पहले से ही 1 घंटा लेट हो गयी थी, लेकिन वो है की परवाह ही नहीं कर रहा था. फिर भी हम सब्र से काम ले रहे थे, कारण रेलवे स्टेशन सामने ही था. 
खैर हम स्टेशन पंहुचे तो पता चला गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म नंबर 2 पर आएगी. सामान ले कर जैसे तैसे पुल करते हुए प्लेटफ़ॉर्म पंहुचे तो बारिश शुरू हो गयी, जैसे 'सिर मुडाते ओले पड़ गए'..... कारण प्लेटफ़ॉर्म पर मौजूद शेड्स, जो छिटके हुए थे और जहाँ थे भी, वहां टपक रहे थे. खैर इंतजार था तो बस ट्रेन का क्योकि वह एक मात्र ट्रेन थी जो भागलपुर से दरभंगा जाती थी.....और उसमें भी खास बात यह थी की हमें उसके एक मात्र आरक्षित कोच ( कुर्सी यान) में बैठने का टिकेट मिल गया था. हम शान के साथ खड़े थे भले ही हम पर हलकी-फुलकी बोछारें पड़ रही थीं....आखिर हम उन कुछ गिने चुने लोगो में से जो थे, जिनके पास टिकेट आरक्षित टिकेट था 
इसी गहमागहमी में अचानक से आवाज़ आई....."हावड़ा से जयनगर जाने वाली गाड़ी २ नंबर प्लेटफ़ॉर्म पर आ रही है...." हम अपने सामान के साथ तैयार थे. गाड़ी की रोशनी दिखने लगी थी, बारिश अपने पूरे जोरो पर थी....ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर लग रही थी और हम अपने कोच पर नज़रें गडाए हुए थे कि यह अपना कोच है या वो अपना कोच है????.....ट्रेन रुकी तो हमने भी प्लेटफ़ॉर्म पर आगे पीछे दौड़ना शुरू किया....बारिश में भीगते हुआ, सामान के साथ हमने आगे से पीछे, पीछे से आगे गाड़ी को कई बार नाप लिया पर हमें कोई सफलता हाथ नहीं लगी......
थक कर आखिर में गार्ड के पास गए और पता किया की हमारे वाला कोच कहाँ लगाया है!!!!!
गार्ड साहब बोलते है, " आज उस कोच के पेपर हमरे पास नहीं ना आये हैं...लगता है आज कोच लगाना भूल गए हैं" ......हमारी हवा ख़राब हुई कि यह बोल क्या रहा है. फिर से पुछा कि कोच भागलपुर में लगता है क्या???
जवाब आया, ' नहीं कोचवा तो हावड़ा से ही लगता है, पर आज नहीं लगाया है ना'.....
अब हमें लगा कि क्या किया जा सकता है, फिर एक आखरी हथियार आजमाया, फिर पुछा कि हमारा क्या होगा ???, 'तो फिर तपाक से जवाब आया, पूरी गाड़ी पड़ी है कहीं भी बैठ जाओ'.....मैं और अभिनव एक दूसरे को देख रहे थे....तभी ध्यान आया के गाड़ी भी चलने वाली है. ध्यान आते ही फिर से दौड़ना शुरू किया कि किस कोच में  बैठा जाये, तभी गाड़ी चल पड़ी.......दौड़ते-दौड़ते एक कोच में चढ़ गए, वहां एक व्यक्ति गेहूं के 8 बोरे लेकर एक पूरा कम्पार्टमेंट लेकर बैठा हुआ था. बैठने के लिए जगह मांगी तो जवाब मिला,' सुल्तानगंज तक ही ना जाना है, वहां से आपको सीटवा मिल ही ना जाना है. तनिक सांस लीजिये'!!!!......
वहां जगह ढूढ़ते हुए जनरल कोच में अपना स्थान ग्रहण किया और किस्सा भागलपुर का ख़तम हुआ..... 


पूर्वोतर भारत की यात्रा



मैं बहुत ज्यादा उत्साहित था. मैं आज भारत के उस हिस्से की यात्रा करने जा रहा था, जिसको सुदूर भारत कहा जाता था, जिसके बारे में अलग कहानिया-किस्से थे. मैं मुंबई से 30 अप्रैल को गुवाहाटी के लिए विमान में सवार हुआ. सुबह का समय था, उडान 7:20 की थी  एअरपोर्ट पर रिपोर्टिंग का समय मैंने 6 बजे निर्धारित किया था. 29 के रात को मुंबई में अपने कॉलेज के एक सर के यहाँ स्टे किया था अँधेरी में. अँधेरी में  रूकने का कारण था, उसका एअरपोर्ट से पास होना! 
30 अप्रैल, सुबह के 5:45 का समय था और मैं और मुकुंद सर ऑटो और टक्सी के लिए कभी इधर तो कभी उधर घूम रहे थे. कोई भी जाने के लिए तैयार नहीं था. कारण पूछने पर पता चला के एअरपोर्ट ज्यादा पास है! किसी तरह से एक टक्सी मिली और मेरा प्रस्थान एअरपोर्ट के लिए हुआ. यह इतने सुबह की मेरी पहली उड़ान थी. सुबह में मुंबई का आसमान से नज़ारा देखना अपने आप में एक सुखद एहसास था. वो समंदर से होते हुए छोटी पहाडियों का नज़ारा दिल को छु रहा था. धीरे धीरे बादलो में पहुचे तो लगा परी लोक में आ गए है. 
असली परीक्षा तो अब शुरू होती है, यह उड़ान 7 घंटे के थे. और 2 अलग अलग जगह पर रूकने वाले थे. बाहर का नज़ारा कितने देर किसी को बांधे रख सकता है. कभी न कभी तो सपना टूटता ही है. थोड़े से फोटोग्राफ्स लेने के बाद मुझे भी लगा यह सब कब तक चलेगा. कोई नहीं अभी भी मुझे भारत के उस हिस्से ने रोमांचित किया हुआ था. मैं अभी भी उसकी कल्पना में डूबा हुआ था. अचानक से घोषणा होती है की  "कोलकाता एअरपोर्ट पर आपका स्वागत है. बाहर का तापमान 30 डिग्री है."  यात्रियों का उतरना शुरू हुआ और विमान को इंतजार था नए यात्रियों का, जो कोलकाता से सवार होने वाले थे. अंततोगत्वा विमान ने 1 घंटे बाद वह से अगरतला के लिए उडान भरी. कुछ १ घंटे के बाद अगरतला आने वाला था. और विमान से नीचे का नज़ारा काफी अच्छा था. पानी से भरे हुए खेत दिख रहे थे, घरो की संरचना झोपडी के तरह थी, जिनपर टिन की छत थी जो सूरज के रोशनी से चमक रही थी. 
अगरतला में भी कोलकाता एअरपोर्ट वही कहानी वापस दोराही गयी और वहां से भी विमान ने 1 घंटे के बाद उड़ान भरी. अभी में काफी रोमांचित हो गया था, बादलो से होती हुए यात्रा जो सिर्फ आधे घंटे में खत्म होने वाली थी, कभी कभी नदी और पहाड़ो के दर्शन भी दे रही थी. हरे पेड़ो से ढके हुए पहाड़ एक सुखद एहसास दे रहे थे और मुझे बोल रहे थे कि तुम अभी तक उस इमारतों के जंगल में क्या कर थे? मुझे लगा के वो मुझे चिढ़ा रहे है और कह रहे है कि तुमने अभी तक जिया तो क्या जीया.
बाहर आते ही पता चला कि बैग का हाथा उडान के दौरान टूट चूका है और उसको ठीक करने के भरसक प्रयास किये गए जिससे वो सही होने के बजाय ओर ख़राब हो गया. शिकायत करी तो हवाई कंपनी बोलती है "कोलकाता वालो की गलती हो सकते है. यहाँ शिकायत हमारी गलती में गिनी जाएगी". फिर मैंने शिकायत लिखित में की ओर बताया के वो कितना बड़ा नुकसान हो सकता था. और हाँ, ऐसा नहीं था कि मैं वहां अकेला शिकार हुए था, मेरे साथ काफी सारे लोग थे, पर कोई कुछ बोल नहीं रहा था. मेरे बोलते ही सब जैसे उठ खड़े हुए. वहां मुझे लगा कि भारत की जनता को हर पल एक नेता के जरुरत है. "वाह रे मैकाले तुने देश की आगे की  कई पीढियों को अपंग बना दिया है!!!"   
ओर इस तरह गुवाहाटी तक पहुँचने  का सफ़र पूरा हुआ.